Sunday, April 10, 2016

हमारी फ़ितरत ...!!!


भले उनको हो आदत बेहिसी की...
हमारी तो है फ़ितरत बंदगी की ;
.
गुज़रती हूँ मैं जब उनकी गली से..
मुझे मिलती है आहट ज़िंदगी की ;
.
सितम पर वो सितम ढाते हैं ऐसे...
कि हद जैसे हुई बेगानगी की ;
.
मुलाक़ातें नहीं अब काम आयें..
हुई है इन्तिहाँ यूँ बेरुखी की ;
.
हज़ारों रास्तों पर ढूंढ आए...
कोई आहट नहीं मिलती ख़ुशी की ;
.
नुमाइश का ज़माना है ये माना...
रविश क्यूँ छोड़ दूँ मैं सादगी की ;
.
यही इक बात तो बदली नहीं है...
ज़रुरत मौत को है ज़िंदगी की ;
.
उन्हें जो देख लूं क़ाबू कहाँ फिर...
अजब होती है हालत बेकली की ;
.
नहीं सुलझी गिरह रिश्ते की ‘तरुणा’..
वगरना क्या वजह पेचीदगी की ..!!


...........................................'तरुणा'...!!!

2 comments:

Aman Kumar said...

बढ़िया ग़ज़ल।

Aman Kumar said...
This comment has been removed by the author.