Tuesday, May 27, 2014

इक बुझा दीया.... !!!




अच्छा  किया ... जो तूने मुझे .. प्यार न किया...
ज़िंदगी को कभी मुझसे ... गुज़रने नहीं दिया ;

सूरज नहीं चाहा कभी ..... चंदा नहीं माँगा.... 
दीया टिमटिमा रहा था जो... वो भी बुझा दिया ;

चाहत थी मुहब्बत में ... छू लूं .. आसमान को...
पैरों तले ज़मीन को ....  खिसका यूँ क्यूँ दिया ;

रस्मों ने न जोड़ा हमें  ... थी न रिवायतें ...
बंधन था जो इक रूह का .. ठुकरा वो भी दिया ;

चल उठ 'तरु' अब .. घर तेरा ... ये नहीं रहा ...
जहाँ तन सजे रहते हों .. वहां मन लुटा दिया ..!!

................................................................'तरुणा'...!!!



Achcha kiya ... jo tune mujhe ... pyaar na kiya...
Zindgi ko kabhi mujhse ... guzarne nahi diya ;

Sooraj nahi chaha kabhi ... chnada nahi maanga ..
Diya timtima raha tha jo ... vo bhi bujha diya ;

Chaaht thi muhabbat me .... chhu lun aasmaan ko..
Pairo tale zameen ko ... khiska yun kyun diya ;

Rasmo ne na joda hame ..... thi na riwaayatein ..
Bandhan tha jo ik rooh ka .. thukra vo bhi diya ;

Chal uth 'Taru' ab... ghar tera .. ye nahi raha ...
Jahan tan saje rahte ho ... vahan man luta diya .. !!

.............................................................................'Taruna'..!!!
















3 comments:

Ashwini Ramesh said...

आपकी ग़ज़ल का भाव पक्ष तो अच्छा है पर इस रचना को ग़ज़ल इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि ग़ज़ल में कम से कम काफिया और रदीफ़ तो होने चाहिये ! आपकी रचना में रदीफ़ तो है जैसे "दिया " जो शेर की दूसरी लाइन के अंत में शब्द है, वह रदीफ़ है परन्तु काफिया होता है जैसे "बुझा' अगली पंक्तियों मे भी रदीफ़ से पहले वो शब्द आना चाहिये था जिसका अंत "आ " मात्रा से होता जैसे लगा , चला ढला आदी ! यह काफिया आपका मिल नहीं रहा !

taruna misra said...

हाँ.... मैं आपकी बात से सहमत हूँ.... बहुत शुक्रिया..... इसे कविता कहना ज्यादा उचित होगा... न की... ग़ज़ल कहना.... अश्विनी रमेश जी... :)

Anonymous said...

रस्मों ने न जोड़ा हमें ... थी न रिवायतें ...
बंधन था जो इक रूह का .. ठुकरा वो भी दिया ;
....आदरणीया मुझे लगता है रूह से अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के बंधनो को बाँधने की महत्ती आवस्यकता है !..